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धर्म एवं दर्शन >> धर्मरहस्य

धर्मरहस्य

स्वामी विवेकानन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :131
मुखपृष्ठ : ईपुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 9559

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समस्त जगत् का अखण्डत्व - यही श्रेष्ठतम धर्ममत है मैं अमुक हूँ - व्यक्तिविशेष - यह तो बहुत ही संकीर्ण भाव है, यथार्थ सच्चे 'अहम्' के लिए यह सत्य नहीं है।

धर्मरहस्य

धर्म क्या है?

रेलवे लाइन पर एक भीमकाय इंजन तेजी से जा रहा था एक छोटा सा कीड़ा लाइन पर रेंग रहा था। इंजन आ रहा है यह देखकर धीरे से लाइन से उतरकर उसने अपने प्राण बचाये। यद्यपि वह क्षुद्र कीट इतना नगण्य है कि इंजन से दबकर किसी भी क्षण उसकी मृत्यु हो सकती है  - तथापि वह एक जीवित पदार्थ है, और इंजन इतना बृहत् इतना प्रकाण्ड होने पर भी केवल एक यन्त्र है, एक जड़ इंजन ही है। आप कहेंगे, एक में जीवन है और दूसरा केवल जड़ पदार्थ है - उसकी चाहे जितनी शक्ति हो, उसकी गति और वेग चाहे जितना प्रबल हो, वह मृत जड़ यन्त्र के सिवाय और कुछ भी नहीं है। और वह क्षुद्र कीट जो लाइन के ऊपर चल रहा था, इंजन के स्पर्शमात्र से जिसकी मृत्यु निश्चित थी, वह उस भीमकाय इंजन की तुलना में श्रेष्ठ और महिमासम्पन्न है। वह उस अनन्तस्वरूप का ही एक क्षुद्र अंश है, इसी कारण वह उस शक्तिशाली इंजन से श्रेष्ठ है। उसका यह श्रेष्ठत्व क्यों हुआ? जीवित, प्राणसम्पन्न वस्तु से मृत जड़ पदार्थ की भिन्नता हम कैसे समझते हैं? यन्त्र-निर्माता ने उसे जिस प्रकार परिचालित करने की इच्छा से निर्माण किया था, वह यन्त्र केवल उतना ही कार्य करता है, उसके सब कार्य जीवित प्राणी की भांति नहीं हैं। तो फिर जीवित और मृत का भेद किस प्रकार किया जाय? जीवित प्राणी के भीतर स्वाधीनता है, ज्ञान है और मृत जड़ पदार्थ में स्वाधीनता नहीं है; कारण, उसको ज्ञान नहीं है, वह कुछ जड़ नियमों की सीमा में बद्ध है। यह जो स्वाधीनता है - जिसके रहने पर ही केवल यन्त्र से हमारा विशेषत्व है - उस स्वाधीनता को पूर्ण भाव से पाने के लिए ही हम सब चेष्टाऐं कर रहे हैं। हमारी जितने प्रकार की चेष्टाएँ हैं - उन सबका यही उद्देश्य है कि कैसे हम अधिकाधिक स्वाधीन हों। क्योंकि पूर्ण स्वाधीनता पाने पर ही हम पूर्णत्व पा सकते हैं। हम जानें या न जानें, स्वाधीनता पाने की यह चेष्टा ही सब प्रकार की उपासना-प्रणालियों की भित्ति है।

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